रश्म अदायगी से नहीं रूकेगी यौन हिंसा
- अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 08 मार्च पर विषेष
विगत चार दिनों में राजधानी रांची में तीन सामूहिक सहित बलात्कार की पांच घटनाएं हो चुकी है। इनमें अवयस्कों की संलिप्तता ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह में यौन हिंसा की बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। अनेक लोग पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश की तर्ज पर 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन हिंसा पर फांसी की सजा वाले कानून की वकालत करने लगेे हैं। फांसी के समर्थक और विरोधी अपनी-अपनी दलीलें दे रहे हैं। बच्चों के साथ यौन हिंसा एक जघन्यतम अपराध है। अपराधी को अधिकतम सजा मिलनी ही चाहिए। इससे मैं पूर्णतः सहमत हूे। नौ साल कीे बच्ची के साथ यौन हिंसा दरिंदगी हीी नहीं, जघन्यतम अपराध है। अपराधी को कठोरतम दंड मिलना चाहिए। मूल प्रश्न यह है कि क्या हम या हमारी व्यवस्था बच्चों के साथ यौन हिंसा को जघन्यतम अपराध मानती है। सिर्फ कहते भर हैं। यदि मानते हैं तो यह हमारे प्रयासों में परिलक्षित क्यों नहीं होता? जो कानून बने हुए हैं उसका भी वांछित प्रयोग क्यों नहीं होता?
नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड के अनुसार वर्ष 2015 में बच्चों के साथ हिंसा के केवल 406 मामले झारखंड में दर्ज हुए थे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा क्रमश: 12,859 एवं 4,489 थे। क्या झारखंड में बच्चों के साथ हिंसा कम है या मामला दर्ज ही नहीं होते। नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड के अनुसार वर्ष 2014 बच्चों के साथ झारखंड में यौन हिंसा के 129 मामला प्रकाश में आए, जो किसी भी थाना में दर्ज नहीं हुए थे। यह आंकड़ा चिंता का मूल कारण है। हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या वास्तव में हम बच्चों के साथ यौन हिंसा को जघन्यतम अपराध मानते हैं? वर्तमान पोक्सो अधिनियम एक र्प्याप्त कानून है, बषर्ते इसका सही तरीके से इस्तेमाल हो।
मामला अगर दर्ज नहीं होते तो इसके लिए दोषी कौन है। क्या केवल पुलिस या फिर समाज कि वह मानसिकता जो यौन हिंसा से प्रभावित व्यक्ति को ही लांक्षित मानता है। जिसके फलस्वरुप अनेक मामले बच्चें या फिर परिवार के स्तर पर ही दब कर रह जाते हैं। जो साहस करते भी हैं, वे जटिल कानूनी प्रक्रिया के आगे हार जाते हैं। निम्नलिखित आंकड़ा मुद्दे के प्रति उदासीनता को दर्शाते हैं-
वर्ष 2015 में देष में बच्चों के साथ यौन हिंसा के 14,913 मामला पोक्सो अधिनियम के तहत दर्ज हुए थे।
इनमें से केवल 2,501 मामलों में गिरफ्तारी हुई।
एक वर्ष में कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के प्रावधान के बावजूद केवल 1,072 मामलों में सजा सुनायी जा सकी।
जून 2012 में पारित पोक्सो (यौन हिंसा से बच्चों का संरक्षण) अधिनियम की धारा 28.1 में मामलों के त्वरित कार्रवाई के लिए विशेष न्ययालय के गठन का प्रावधान है। झारखंड में विशेष न्ययालय के गठन की केवल रश्म अदायगी की गई है। प्रतिदिन बच्चों के साथ यौन हिंसा के मामले अखबारों की सुर्खियों में रहते हैं। गोरखपुर में बच्चों की मौत पर मोमबत्ती जलाने वाले भी ज्यादा मुखर नहीं हैं।
पोक्सो अधिनियम के तहत -
बच्चों के साथ यौन हिंसा के मामले जानकारी के बावजूद दर्ज नहीं कराने पर धारा 21 के तहत छह माह से एक वर्ष की सजा का प्रावधान है।
धारा 35.1 के तहत हिंसा के साक्ष्य 30 दिनों के अंदर दर्ज हो जाने चाहिए
धारा 35.2 के एक वर्ष के अंदर मामलों का निबटारा हो जाने चाहिए
इतने सख्त प्रावधान के बावजूद मामला दर्ज न होना, 14,913 में से केवल 1,072 (7.19 प्रतिशत) मामलों में सजा हो पाना चिंताजनक है। हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या लोक लुभावन नए कानूून की आवश्यकता है या वर्तमान कानून के सख्त क्रियान्वयन और सामाजिक जागरुकता की। क्या मुद्दे पर कार्यशाला पर्याप्त है या परिणाम मिलने तक जन आंदोलन की। बरियातु की निर्भया का परिणाम हमारे सामने है। सोचे और अपनी भागीदारी निभायें। परिस्थिति कठिन है मगर हार मानकर खामोश हो जाना समाधान नहीं।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)


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