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सामाजिक प्रतिरोध से कम होते हैं बलात्कार


  • राहुल मेहता
रांची। लैंगिक शोषण का इतिहास आदि काल से मिल जाता है। शोषण के कारण समय के साथ बदलते रहें हैं। यह आज कल इंटरनेट पर आ कर टिकी है। कभी कपड़े तो कभी अकेले निकलना कारण बनते रहे हैं, जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। आज पूरा देश लैंगिक शोषण के विरुद्ध उद्वलित है। अजीबो–गरीब कारण भी सुनने को मिल रहें हैं। जघन्य अपराध के विरुद्ध स्वतः स्फूर्त आंदोलन को सरकार समर्थक और विपक्ष अलग-अलग दृष्टिकोण से देख रहें हैं। किसी को साजिश की बू आ रही है, तो कोई इसे सरकार के खिलाफ उठाया गया कदम मान रहे हैं। कुछ लोग तो विगत 70 साल से या पूर्व की घटनाओं से तुलना कर मुद्दे को भटकाने का भी प्रयास कर रहें हैं। कौन सही है, कौन गलत। आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं। तथ्यों का अवलोकन करें और पार्टीगत लाइन से निश्पिक्ष होकर सोचें। मेरा प्रश्न है कि लैंगिक शोषण के विरुद्ध सामाजिक प्रतिरोध का बलात्कार पर सीधा क्या प्रभाव पड़ता है?

विगत एक साल में झारखंड में दर्ज (घटित नहीं) बलात्कार की घटनाओं पर नजर डालते हैं;-
मार्च 2017 (99), अप्रैल (120), मई (141), जून(122), जुलाई (138), अगस्त (103), सितम्बर (112), अक्टूबर (106), नवम्बर (62), दिसम्बर (116), जनवरी 2018 (109), फरवरी (108). प्रतिमाह 100 से काम घटना केवल मार्च और नवंबर में दर्ज हुए हैं। कोई विशेष वजह? वजह पर जाने से पूर्व एक दलील पर चर्चा आवश्यक है। कुछ लोग कहते हैं कि बलात्कार की घटना के दर में इजाफा नहीं हुआ है, बल्कि संवेदनशीलता और व्यवस्था में सुधार के कारण रिपोर्टिंग दर बढ़ी है। अब सवाल उठता है कि संवेदनशीलता और व्यवस्था का स्तर का महीने के हिसाब से बदलता रहता है क्या? शायद नहीं। अतः संवेदनशीलता और व्यवस्था में सुधार के कारण रिपोर्टिंग दर में इजाफा का तर्क पूर्णतः सत्य प्रतीत नहीं होता।

तब वजह क्या है? मार्च और नवम्बर बलात्कार की घटना में कमी का एक वजह जो नजर आती है वह है, सामाजिक प्रतिरोध और सामाजिक पहल। मार्च और नवम्बर क्रमश: महिला दिवस और हिंसा के विरुद्ध 16 दिवसीय अभियान के लिए जाना जता है। ये कार्यक्रम न केवल सामाजिक संवेदनशीलता में इजाफा करती है, अपितु प्रशासन को भी सचेत एवं सजग बनाती हैं। जिसका प्रभाव बलात्कार की घटना में कमी के रूप में होता है। यह अलग बात है कि व्यवस्थागत सुधर नहीं होने के कारण माह खत्‍म होते ही सब कुछ अपने पुराने स्वरुप में चला जाता है। विश्लेषण और भी हैं, पर अभी इतना ही। तब तक आप सभी भी अपना तर्क दें।
लेखक : पुनर्वास एवं बालाधिकार कार्यकर्ता हैं।


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