जो ग्रंथि से मुक्त कर दें वहीं गुरु ग्रंथ: स्वामी सत्यानंद परमहंस
रांची। बसारगढ़ टीपूदाना स्थित ब्रम्ह विद्यालय एवं आश्रम में अपने 15 दिनों के प्रवास के आठवें दिन स्वामी सत्यानंद परमहंस ने विभिन्न स्थानों से आये भक्तों के बीच सतसंग के क्रम में कहा कि गुरु ग्रंथ का अर्थ मनुष्य को ग्रंथियों से मुक्त कराने वाले से है। रविवार को बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल और झारखंड से आये भक्तों के बीच स्वामी जी ने कहा कि जड़ और चेतन के इस संसार में जड़ के बधंन काटने वाले तत्व ज्ञानियों, सदगुरु नानक देव, कबीर, धरनीदास, दरियादास, रैदास गुरु ग्रंथ हीं हैं। गुरु ग्रंथ में इनकी ही वाणी सुरक्षित है। गुरुग्रंथ को जानिये प्रगट गुरु की देह। वर्तमान समय में जीव ग्रंथियों में उलझकर अपने मूल कर्तव्य से विमुख हो रहा है।
साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की रचना कामयनी की पंक्तियां- एक तत्व की है प्रधानता उपर ही जल है, नीचे एक तरल है एक सघन। कहां जड़ या कहां चेतन। मनुष्य का शरीर या गुरु दरबार जड़ है। गुरु चेतन है और चेतन का ही महत्व है। जीवन में व्यक्ति और स्थान का बड़ा महत्व है। परमहंस दयाल जी ने छपरा से अपनी भक्ति यात्रा आंरभ कि लेकिन टेरी जो अब पाकिस्तान में है वहां जाकर ब्रम्ह विद्यालय सह आश्रम स्थापित किया। इस कार्य में उन्हें 20 वर्षो का समय लगा। संत आनंदपुर से मिले तब दरबार बना। प्रकृति नहीं मिलती तब तक पुरुष निद्रा में होता है। उन्होंने जो भक्ति की चेतना जगाई वह आज भी गढ़वा घाट काशी, और राजपुर होते फिर से छपरा पहुंचा। सन 1846 में इनका जन्म छपरा में हुआ था। स्वामी जी की स्वरचित भजन ज्ञान पद करहुं मैं भक्ति सिंगार नाथ महारानी हूं जी। अपने आप में भक्ति की उंचाई तक स्पर्श करने वाली सबसे श्रेष्ठ रचना है। हमको द्धैत दृष्टि नहीं आती, जहां देखों तहां वहीं आत्मा पिता पुत्र और नाती। जैसी प्रार्थना भक्ति का पद दूसरा कोई नहीं है। उनकी बहाई भक्ति धारा गढ़वा घाट काशी के बाद जब 1949 में राजपुर बक्सर आयी।
सदगुरु गढ़वा घाट के महाराज के आदेश पर स्वामी शिवर्धमानंद जी वह कार्य किया जो सतयुग में हनुमान भी नहीं कर पाये थे। राम के भक्ति के लिए हनुमान को गुरु अगस्त ने भेजा था। राम की भक्ति के क्रम में हनुमान को अयोध्या में ही रह गये जैसा राम ने आदेश दिया औरउनका काम था राम सहित उनके भाईयों के आठ संतानों को भक्ति से जोड़ें रखना। उन्हें कार्य के लिए अयोध्या जैसा नगर मिला। लेकिन स्वामी शिवर्धमानंद ने वगैर किसी व्यक्ति को जाने सदगुरु के आदेश पर आये और राजपुर नामक स्थान पर ज्ञान और भक्ति को स्थापित किया।
गढ़वा घाट के स्वामी जी के आदेश पर इस क्षेत्र में आये और उन्होंने पांच पीढि़यों के बीच भक्ति, ज्ञान योग और प्रेम को स्थापित किया। किसी भी कार्य के लिए व्यक्ति और स्थान का सामंजस्य आवश्यक है। कोई भी प्रकृति और पुरुष के वगैर नहीं होता। दो का संयोग ही निमार्ण का कारण है। जीव को सदगुरु के मिलन के बाद ही जीवन का आनंद मिलता है, वह सत-चित-आनंद हो जाता है।
साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की रचना कामयनी की पंक्तियां- एक तत्व की है प्रधानता उपर ही जल है, नीचे एक तरल है एक सघन। कहां जड़ या कहां चेतन। मनुष्य का शरीर या गुरु दरबार जड़ है। गुरु चेतन है और चेतन का ही महत्व है। जीवन में व्यक्ति और स्थान का बड़ा महत्व है। परमहंस दयाल जी ने छपरा से अपनी भक्ति यात्रा आंरभ कि लेकिन टेरी जो अब पाकिस्तान में है वहां जाकर ब्रम्ह विद्यालय सह आश्रम स्थापित किया। इस कार्य में उन्हें 20 वर्षो का समय लगा। संत आनंदपुर से मिले तब दरबार बना। प्रकृति नहीं मिलती तब तक पुरुष निद्रा में होता है। उन्होंने जो भक्ति की चेतना जगाई वह आज भी गढ़वा घाट काशी, और राजपुर होते फिर से छपरा पहुंचा। सन 1846 में इनका जन्म छपरा में हुआ था। स्वामी जी की स्वरचित भजन ज्ञान पद करहुं मैं भक्ति सिंगार नाथ महारानी हूं जी। अपने आप में भक्ति की उंचाई तक स्पर्श करने वाली सबसे श्रेष्ठ रचना है। हमको द्धैत दृष्टि नहीं आती, जहां देखों तहां वहीं आत्मा पिता पुत्र और नाती। जैसी प्रार्थना भक्ति का पद दूसरा कोई नहीं है। उनकी बहाई भक्ति धारा गढ़वा घाट काशी के बाद जब 1949 में राजपुर बक्सर आयी।
सदगुरु गढ़वा घाट के महाराज के आदेश पर स्वामी शिवर्धमानंद जी वह कार्य किया जो सतयुग में हनुमान भी नहीं कर पाये थे। राम के भक्ति के लिए हनुमान को गुरु अगस्त ने भेजा था। राम की भक्ति के क्रम में हनुमान को अयोध्या में ही रह गये जैसा राम ने आदेश दिया औरउनका काम था राम सहित उनके भाईयों के आठ संतानों को भक्ति से जोड़ें रखना। उन्हें कार्य के लिए अयोध्या जैसा नगर मिला। लेकिन स्वामी शिवर्धमानंद ने वगैर किसी व्यक्ति को जाने सदगुरु के आदेश पर आये और राजपुर नामक स्थान पर ज्ञान और भक्ति को स्थापित किया।
गढ़वा घाट के स्वामी जी के आदेश पर इस क्षेत्र में आये और उन्होंने पांच पीढि़यों के बीच भक्ति, ज्ञान योग और प्रेम को स्थापित किया। किसी भी कार्य के लिए व्यक्ति और स्थान का सामंजस्य आवश्यक है। कोई भी प्रकृति और पुरुष के वगैर नहीं होता। दो का संयोग ही निमार्ण का कारण है। जीव को सदगुरु के मिलन के बाद ही जीवन का आनंद मिलता है, वह सत-चित-आनंद हो जाता है।
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